भाजपाई जीत की राह में रोड़ा बनी सांसदों की गुटबाजी!

- नरेश सोनी
दुर्ग। जयपुर में हाल ही में हुई भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भले ही संगठन और कार्यकर्ताओं का महिमामंडन किया गया हो, लेकिन इधर, छत्तीसगढ़ में भाजपा संगठन का बंठाधार है। जिस कैडर के दम पर देश के अधिकांश राज्यों में पार्टी सत्ता में आने का दावा करती है, वही कैडर यहां छत्तीसगढ़ में लगभग खत्म हो चुका है। कार्यकर्ता सख्त नाराज हैं। इस नाराजगी की एक बड़ी वजह पार्टी के सीनियर नेताओं में व्याप्त गुटबाजी है। प्रदेश के हर क्षेत्र में कार्यकर्ता गुटों में बँटे हुए हैं। किसी एक गुट को टिकट मिलने की स्थिति में दूसरे गुट के लोग हरवाने में जुट जाते हैं। २०१८ के नतीजे इसके गवाह है। भाजपा दरअसल, अपनी खुद की कमियों और कमजोरियों के कारण हारी। शर्मनाक बात यह है कि पार्टी की चुनावी तैयारियों के बीच बड़े नेता अब भी सुधरने को तैयार नहीं है।
दुर्ग जिले की कुल ६ विधानसभा सीटों में से भाजपा को २०१८ के पिछले चुनाव मेंमहज १ सीट मिली। २०२३ की तैयारियों में जुटी भाजपा के लिए अब इस एक सीट को बचाना भी मुश्किल दिख रहा है। वजह स्पष्ट है – गुटबाजी। ..और इस गुटबाजी के केन्द्र में भाजपा के ही २ सांसद हैं। राज्यसभा सांसद सरोज पाण्डेय का जिला संगठन पर पूरी तरह कब्जा है, जबकि लोकसभा के सांसद विजय बघेल को संगठन में कमियां और कमजोरियां दिखती हैं। पिछले दिनों जिस तरह से बघेल के एक बयान पर सरोज गुट के लोगों ने आक्रामकता दिखाई, उसके बाद सवाल उठ रहा है कि क्या वाकई जिले के वरिष्ठ नेता चुनाव जीतने के लिए संकल्पित हैं? चौंकाने वाली खबर तो यह भी है कि कई लोगों ने कुछ मीडिया वालों से सम्पर्क कर विजय बघेल के खिलाफ समाचार छपवाने तक कोशिश की। मतलब साफ है कि भाजपा का ही एक गुट विशेष इस कोशिश में है कि किसी तरह निर्वाचित सांसद विजय बघेल को किनारे लगाया जाए। विधानसभा चुनावों के बाद लोकसभा चुनाव भी होने हैं और पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का असल केन्द्र भी लोकसभा चुनाव ही रहा। केन्द्र सरकार की कई नीतियों की वजह से जनता में खासी नाराजगी है। इन परिस्थितियों में पार्टी के लिए एक-एक सांसद बेहद अहम् है। सवाल यह है कि सांसद विजय बघेल को निपटाने के चक्कर में पार्टी के बड़े नेता कहीं न कहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए गड्ढा तो नहीं खोद रहे?
जिले की भाजपाई राजनीति पिछले करीब एक माह में करवट लेती दिखती है। प्रदेश प्रभारी डी. पुरंदेश्वरी का दुर्ग दौरा और संभागीय बैठक लेना, भाजयुमो और महिला मोर्चा की अहम् बैठकें होना,- यह सब दर्शाता है कि राष्ट्रीय और प्रादेशिक संगठन मृतप्राय संगठन को फिर से खड़ा करने में जुटे हैं। कार्यकर्ताओं को रिचार्ज करने की भरसक कोशिशें की जा रही है। इन हालातों में पार्टी के भीतर व्याप्त गुटबाजी, सारे किए-धरे पर पानी फेर रही है। विधानसभा चुनाव के लिए टिकट के कई दावेदार लगातार सामने आ रहे हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर वे हैं जिनकी बखत वार्ड चुनाव जीतने तक की नहीं है। ऐसे में दमदार प्रत्याशी का चयन कर उसकी जीत के लिए एकजुट होकर कोशिश करना पार्टी की नितांत आवश्यकता है। किन्तु सवाल फिर वहीं गुटबाजी पर आकर थम जाता है।
इधर, पार्टी स्तर पर जो संकेत मिल रहे हैं, वे इशारा करते हैं कि इस बार युवाओं को सामने लाने की कोशिशें रहेगी। अहिवारा सीट से पिछली दफा तत्कालीन विधायक सांवलाराम डाहरे को फिर से टिकट दी गई थी। जिले की इस इकलौती आरक्षित सीट से वे अपने ही समाज के गुरू रूद्रकुमार से बुरी तरह हार गए। डाहरे, सांसद सरोज पाण्डेय के समर्थक हैं। टिकट वितरण के वक्त उनकी खिलाफत भी हुई थी, लेकिन सुश्री पाण्डेय अपने समर्थक को टिकट दिलाने में कामयाब रही थी। वैशाली नगर जिले की इकलौती सीट है, जहां से २०१८ में भाजपा को जीत मिली। इसके अलावा भिलाई नगर क्षेत्र में वरिष्ठ नेता प्रेमप्रकाश पाण्डेय भी युवा छात्र-नेता देवेन्द्र यादव के हाथों पराजित हुए। संभावना जताई जा रही है कि इन तीनों सीटों पर भाजपा नए, युवा व ऊर्जावान प्रत्याशी उतार सकती है। पाटन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का क्षेत्र है, यहां पिछली दफा भाजपा ने जातीय समीकरणों के मद्ेदनजर मोतीलाल साहू को प्रत्याशी बनाया था। इस बार यहां भी भाजपा से नया प्रत्याशी चुनाव लड़ता दिख सकता है। दुर्ग ग्रामीण में पार्टी ने जागेश्वर साहू को टिकट दी थी। भाजपा का यह दांव भी बुरी तरह पिटा। कमोबेश ऐसी ही स्थिति दुर्ग शहर क्षेत्र की भी रही। तत्कालीन महापौर चंद्रिका चंद्राकर के खिलाफ जनाक्रोश और कार्यकर्ताओं की नाराजगी को अनदेखा कर विधानसभा में प्रत्याशी बनाया गया, नतीजा सभी जानते हैं।
राष्ट्रीय संगठन से की गई शिकायतें बेअसर
पिछले कुछ वर्षों में भाजपा का जनाधार बेहद तेजी से गिरा और जाहिर है कि इसकी सबसे बड़ी वजह पार्टी की भीतरी गुटबाजी रही। यह गुटबाजी जिले में लम्बे समय से चली आ रही थी, किन्तु प्रदेश में सत्ता होने की वजह से इसे नजरअंदाज किया जाता रहा। प्रदेश की सत्ता से विदाई के बाद अचानक ही राज्य के साथ ही जिले की भाजपाई राजनीति में भी कड़ुवाहट बढ़ गई। संगठन पर कब्जा रहेगा तो मनमुताबिक टिकट वितरण किया जा सकेगा। इसी एक सोच के चलते खोटे सिक्कों को विधानसभा के चुनाव में चलवाने की कोशिश की गई। इसी का नतीजा रहा कि जिले की ६ सीटों में से पार्टी को कुल ५ सीटों पर बुरी तरह पराजय मिली। कभी भाजपा का गढ़ रहा दुर्ग बुरी तरह ढह गया तो आहत नेताओं-कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय संगठन तक शिकायतें की। किसी ने चिट्ठी लिखी तो किसी ने ई-मेल कर अपनी और कार्यकर्ताओं की भावनाओं से अवगत कराने की चेष्टा की, किन्तु राष्ट्रीय नेताओं के सिर जूं नहीं रेंगी। शिकायतों पर कभी कोई कार्यवाही नहीं हो पाई। भाजपा का एक कार्यकर्ता जरूर इस बात का दावा करता है कि उसकी शिकायत के बाद सरोज पाण्डेय की राष्ट्रीय संगठन से विदाई हो गई।
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